चार युगों का वर्णन: सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग, और कलियुग
हिंदू धर्मग्रंथों में समय को चार युगों में विभाजित किया गया है, जिन्हें सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग, और कलियुग के नाम से जाना जाता है। इन युगों के अनुसार, संसार की नैतिकता और मानव चरित्र में क्रमिक रूप से पतन होता गया है। इन युगों का वर्णन हमें समाज, नैतिकता और धर्म के बदलावों की जानकारी देता है, जो देवताओं और दानवों के बीच के संबंधों के माध्यम से भी समझा जा सकता है। चलिए इन चार युगों का क्रमवार विस्तृत विवेचन करते हैं।
1. सतयुग: सत्य और धर्म का युग
समय: सतयुग को स्वर्ण युग कहा जाता है और यह चारों युगों में सबसे लंबा होता है। यह लगभग 1,728,000 वर्षों तक चला।
विशेषताएं:
इस युग में सत्य और धर्म का पूर्ण रूप से पालन किया जाता था।
देवता और दानव दो अलग-अलग लोकों में निवास करते थे। देवता स्वर्ग लोक में और दानव पाताल लोक में रहते थे।
मानवता परोपकारी, सत्यनिष्ठ और धार्मिक थी। इस युग में पाप का अस्तित्व न के बराबर था।
मनुष्य का जीवनकाल लंबा और स्वस्थ रहता था।
ऋषि-मुनियों द्वारा तपस्या और साधना का उच्चतम स्तर था।
प्रजा और राजा दोनों ही धर्म के पथ पर चलते थे। सभी जीव, चाहे मनुष्य हों या पशु, प्रेम और शांति के साथ रहते थे।
2. त्रेता युग: धर्म और अधर्म का द्वंद्व
समय: त्रेता युग सतयुग के बाद आता है और इसकी अवधि लगभग 1,296,000 वर्षों की होती है।
विशेषताएं:
इस युग में धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष देखने को मिलता है।
देवता और दानव अब एक ही लोक में रहने लगे थे।
सबसे प्रसिद्ध उदाहरण भगवान श्रीराम और रावण का है। श्रीराम अच्छाई के प्रतीक थे जबकि रावण दानवता का प्रतिनिधित्व करता था।
इस युग में पाप बढ़ने लगा, लेकिन धर्म की रक्षा के लिए अवतारों का जन्म होता रहा।
लोगों का जीवन सतयुग की अपेक्षा छोटा और संघर्षपूर्ण हो गया था।
तप और ध्यान का महत्व अब भी बना रहा, लेकिन मानव स्वभाव में लोभ और अहंकार जैसे दोष आने लगे।
3. द्वापर युग: अच्छाई और बुराई एक परिवार में
समय: द्वापर युग त्रेता युग के बाद आता है और यह लगभग 864,000 वर्षों तक चला।
विशेषताएं:
इस युग में अच्छाई और बुराई एक ही परिवार में दिखाई देने लगी।
उदाहरण: महाभारत की कथा में, धर्मराज युधिष्ठिर और उनके भाई पांडव धर्म और सत्य के प्रतीक थे, जबकि उनके चचेरे भाई दुर्योधन अधर्म और अहंकार का प्रतिनिधित्व करते थे।
इस युग में, मानवता में पाप और पुण्य के बीच का संतुलन और अधिक बिगड़ गया।
युद्ध और संघर्ष का दौर शुरू हो गया था। महाभारत का युद्ध इस युग की सबसे बड़ी घटना मानी जाती है, जो धर्म और अधर्म के बीच हुआ था।
मनुष्य का जीवन और छोटा हो गया और शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक ताकत कमजोर हो गई।
धर्म का पालन कम हो गया और लोभ, स्वार्थ, और अहंकार का प्रभाव बढ़ गया।
4. कलियुग: अच्छाई और बुराई एक ही शरीर में
समय: कलियुग द्वापर युग के बाद आता है और यह लगभग 432,000 वर्षों तक चलेगा। वर्तमान में हम इसी युग में जी रहे हैं।
विशेषताएं:
इस युग में अच्छाई और बुराई का संघर्ष आंतरिक हो गया है।
देवता और दानव अब एक ही शरीर में निवास करते हैं, यानी हर व्यक्ति के भीतर अच्छाई और बुराई दोनों होती हैं।
मानवता का नैतिक पतन हो चुका है, और पाप का प्रभाव बहुत बढ़ गया है।
जीवन में अशांति, असत्य, लोभ, द्वेष और क्रूरता का बोलबाला है।
मनुष्य का जीवन छोटा हो गया है और बीमारियों और मानसिक तनाव का बढ़ना आम हो गया है।
धार्मिक अनुष्ठान और आध्यात्मिकता का महत्व घटता जा रहा है, और भौतिकता व स्वार्थ का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है।
समाज में धर्म और अधर्म की पहचान मुश्किल होती जा रही है, क्योंकि सत्य और असत्य की सीमाएं धुंधली हो चुकी हैं।
निष्कर्ष: युगों के साथ मानवीय पतन की यात्रा
चारों युगों का विश्लेषण हमें यह सिखाता है कि जैसे-जैसे युग बदलते गए, मानवीय नैतिकता और धार्मिकता में गिरावट आती गई। सतयुग से लेकर कलियुग तक, अच्छाई और बुराई के बीच की दूरी कम होती गई और अंततः कलियुग में यह अंतर मानव के भीतर ही सिमट गया। अब हम हर दिन अपने अंदर के देवता और दानव के बीच संघर्ष का सामना करते हैं।
आज के समय में, जब हम कलियुग के दौर से गुजर रहे हैं, हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम आत्मनिरीक्षण करें और अपनी आंतरिक अच्छाई को पहचान कर उसे जागृत करें। धर्म और सत्य के मार्ग पर चलकर ही हम अपने जीवन को सकारात्मक बना सकते हैं।